कुली बेगार के बहाने नानकमत्ता के बच्चों ने जाना आजादी के आंदोलन का इतिहास

समाचार शगुन उत्तराखंड 

रचनात्मक शिक्षक मंडल द्वारा आजादी के आंदोलन के बारे में स्कूली बच्चों को जानकारी देने के अभियान के तहत ऊधमसिंहनगर जिले के नानकमत्ता पब्लिक स्कूल, नानकमत्ता में आज सोमवार से दो दिवसीय कार्यक्रम शुरू हुआ। जश्न ए आजादी के तहत हुए कार्यक्रम के पहले दिन बच्चों ने सिनेमा के माध्यम से उत्तराखंड में आजादी के इतिहास के बाबत जाना।
कार्यक्रम की शुरुआत प्रात कालीन सभा में प्रताप सिंह बोरा द्वारा 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में लिखे गए गीत उठो, हिटो, ददा भुलियों से हुई। इसके पश्चात शिक्षक मंडल संयोजक नवेंदु मठपाल द्वारा कुली बेगार आंदोलन पर बातचीत रखते हुए बताया गया सबसे पहले चन्द शासकों ने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ’घोडालों‘ निरूपति किया था, सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया लेकिन व अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमकारी रूप तक पहुंचाया। पहले यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे। अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया। जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही। 14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्व के अवसर पर कुली बेगार आन्दोलन की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन में आम आदमी की सहभागिता रही, अलग-अलग गांवों से आये लोगों के हुजूम ने इसे एक विशाल प्रदर्शन में बदल दिया। सरयू और गोमती के संगम (बगड़) के मैदान से इस आन्दोलन का उदघोष हुआ। इस आन्दोलन के शुरू होने से पहले ही जिलाधिकारी द्वारा पं० हरगोबिन्द पंत, लाला चिरंजीलाल और बद्री दत्त पाण्डे को नोटिस थमा दिया लेकिन इसका कोई असर उनपर नहीं हुआ, उपस्थित जनसमूह ने सबसे पहले बागनाथ के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और फिर 40 हजार लोगों का जुलूस सरयू बगड़ की ओर चल पड़ा। जुलूस में सबसे आगे एक झंडा था, जिसमें लिखा था “कुली बेगार बन्द करो”, इसके बाद सरयू मैदान में एक सभा हुई। इस सभा को सम्बोधित करते हुए बद्रीदत्त पाण्डे ने कहा “पवित्र सरयू का जल लेकर बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करो कि आज से कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे। सभी लोगों ने यह शपथ ली और गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया। अल्मोडा का तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में मौजूद था, उसने भीड़ पर गोली चलानी चाही, लेकिन पुलिस बल कम होने के कारण वह इसे मूर्त रूप नहीं दे पाया। इस सफल आंदोलन के बाद जनता ने बद्री दत्त पाण्डे को कुमाऊं केसरी की उपाधि दी, इस आन्दोलन का लोगों ने समर्थन ही नहीं किया बल्कि कड़ाई से पालन भी किया और इस प्रथा के विरोध में लोगों का प्रदर्शन जारी रहा। इसकी परिणिति यह हुई कि सरकार ने सदन में एक विधेयक लाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया। इस आंदोलन से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुये और स्वयं बागेश्वर आये और चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की। इसके बाद गांधी जी ने यंग इंडिया में इस आन्दोलन के बारे में लिखा कि ,इसका प्रभाव संपूर्ण था, यह एक रक्तहीन क्रान्ति थी।कार्यक्रम के दौरान कुली बेगार आंदोलन के साथ साथ आजादी के आंदोलन पर केंद्रित डॉक्युमेंट्री भी देखी गई। इस दौरान स्कूल में शिक्षक साथी अशोक चन्द, भुवन जोशी, यशवन्त विष्ट, रुचा विश्वेश्वरी, अंजलि, नेहा भट्ट, तरुण, संजय राना, अभिलाषा और सौरभ जोशी मौजूद थे।

 

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