समाचार शगुन हल्द्वानी उत्तराखंड
नैनीताल जिले में रामनगर के राजकीय इंटर ढेला में आज शुक्रवार 10 मई को विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से 1857 के स्वतंत्रता संग्रामियों को याद किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत प्रातकालीन सभा में 1857 के अजीमुल्ला खां द्वारा लिखे गए प्रयाण गीत हम हैं इसके मालिक से की गई। जिसको खुशी बिष्ट, कोमल सत्यवली और उनकी टीम ने गाया। उसके बाद अंग्रेजी प्रवक्ता नवेंदु मठपाल ने अपने संबोधन में कहा कि आज 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम की 167 वीं सालगिरह है। इतिहास की उस “साझी शहादत साझी विरासत “जिसने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के “बांटो राज करो “की सोच को पलीता लगा पूरे देश को एकजुट कर दिया, उसे आज और भी शिद्दत से महसूस किए जाने की जरूरत है। इस महान स्वतंत्रता संग्राम की यह सच्चाई किसी से छुपी नही है कि इसका नेतृत्व नानासाहब, दिल्ली के बहादुरशाह ज़फ़र, मौलवी अहमदशाह, तात्या टोपे, खा़न बहादुरखान, रानी लक्ष्मीबाई, हज़रत महल, अज़ीमुल्लाह खा़न और शहज़ादा फिरोज़शाह ने मिलकर किया। इस संग्राम में मौलवी, पंडित, ग्रंथी, ज़मींदार, किसान, व्यापारी, वकील, नौकर, महिलाएं, छात्र और सभी जातियों-धर्मों के लोग भी शामिल हुए और जानों की कुर्बानियां दीं। 11 मई, 1857 को जिस क्रांतिकारी सेना ने बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का स्वतंत्र शासक घोषित किया था, उसमें 70 प्रतिशत से भी ज्यादा सैनिक हिंदू थे। बहादुरशाह ज़फ़र को बादशाह बनाने में नाना साहब, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1857 के संग्राम से संबंधित समकालीन दस्तावेज़ देश के चप्पे-चप्पे पर घटी ऐसी दास्तानों से भरे पड़े हैं, जहां मुसलमान, हिंदू और सिख इस बात की परवाह किए बिना, कि कौन नेतृत्व कर रहा है, और कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है, एक होकर लड़े और 1857 की जंगे-आज़ादी मे एक साथ प्राणों की आहुति दी। जीवविज्ञान प्रवक्ता सीपी खाती ने कहा कि 1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय विद्रोह या भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के रूप में भी जाना जाता है, भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह 10 मई, 1857 को मेरठ शहर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों (भारतीय सैनिकों) के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ और जल्द ही भारत के अन्य हिस्सों में फैल गया। विद्रोह ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीय आबादी के वर्षों के आक्रोश की परिणति थी, और इसने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत की शुरुआत को चिह्नित किया।कला शिक्षक प्रदीप शर्मा के दिशा निर्देशन में बच्चों द्वारा संग्रामियों के चित्र भी बनाए गए। इस दौरान 1857 पर केंद्रित एक डाक्यूमेंट्री भी देखी गई। इस मौके पर प्रधानाचार्य श्रीराम यादव, मनोज जोशी, सीपी खाती, नवेंदु मठपाल, संत सिंह, बालकृष्ण चंद, शैलेंद्र भट्ट, हरीश कुमार, उषा पवार, पद्मा, नरेश कुमार आदि मौजूद थे।