समाचार शगुन हल्द्वानी उत्तराखंड
साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त कुमाऊंनी साहित्यकार मथुरा दत्त मठपाल की तीसरी पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी कविताओं की संगीतमय प्रस्तुति के साथ साथ हमरी दुदबोलि, हमर पछ्याण विषय पर आज गुरुवार 9 मई को संगोष्ठी का आयोजन पंपापुरी में किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत मठपाल के चित्र पर माल्यार्पण से हुई। रामनगर के मालधन महाविद्यालय हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो.गिरीश पंत ने मठपाल के साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड की आंचलिक भाषा के विकास में उनके द्वारा किये गए योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। शायद यही कारण रहा कि मथुरा।दत्त मठपाल को साहित्य अकादमी द्वारा पहली बार कुमाउंनी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देते हुए ‘भाषा सम्मान’ के लिये चुना। वक्ताओं ने कहा कि
कुमाऊंनी के विकास के लिए समय पूर्व रिटायरमेंट लेने के बाद मठपाल ने रामनगर शहर के पंपापुरी स्थित अपने आवास से वर्ष 2000 में ‘दुदबोलि’ नाम से कुमाऊंनी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। दुदबोलि के 24 त्रैमासिक (64 पृष्ठ) अंक निकालने के बाद 2006 में इसे वार्षिक (340 पृष्ठ) का कर दिया। जिनमें लोक कथा, लोक साहित्य, कविता, हास्य, कहानी, निबंध, नाटक, अनुवाद, मुहावरे, शब्दावली व यात्रा वृतांत आदि को जगह दी गई.डाॅ. रमेश शाह, शेखर जोशी, ताराचंद्र त्रिपाठी, गोपाल भटट, पूरन जोशी, डाॅ.प्रयाग जोशी सरीखे 50 से भी ज्यादा लब्धप्रतिष्ठ कवि व लेखक ‘दुदबोलि’ से जुड़े हैं। बांग्ला, गुजराती, अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी, नेपाली, गढ़वाली साहित्य मूल रूप में या कुमाऊंनी अनुवाद को इसमें स्थान मिला है। नेपाली और कुमाऊंनी बालगीत भी छापे गए हैं। मठपाल के स्वयं रचित पांच काव्य संकलन प्रकाशित हुए आजादी से पहले व बाद में भी कुमाऊंनी भाषा में अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हुई हैं। मगर ‘दुदबोलि’ पत्रिका के प्रकाशन की निरंतरता और इसका समर्पणभाव अनूठा ही था। जिस दिन भी कुमाऊंनी बोली संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो पाएगी तो उसका एक कारण मठपाल का ‘दुदबोलि’ पत्रिका में लिपिबद्ध किया गया साहित्य का आधार होगा। एक संचेतनशील कवि और साहित्यकार होने के अलावा ‘दुदबोलि’ जैसी कुमाऊंनी भाषा और साहित्य को समर्पित पत्रिका का कठिन परिस्थितियों में भी सम्पादन और प्रकाशन का कार्य निरन्तर रूप से जारी रखना, उनका समर्पित अविस्मरणीय योगदान ही माना जाएगा। मथुरा दत्त मठपाल माटी की नराई, जात-थात की धात,च्यूड़- हरेला- घुघुत- बिरुड़ की लीक,मेले-कौतिक-जात्राओं की झरफर, अपने कुमैया होने की चिनाण, आण-काणि कथ्यूड़ों को कंछ-मंछों तक पहुँचाने में लगे रहने वाले एक ऐसे रचनाकार हैं,जो एक लम्बे समय तक ‘दुदबोली’ पत्रिका एवं अपने स्फुट लेखन के माध्यम से कुमाउनी के आँखरों की सज-समाव, टाँज-पाँज करते रहे। अपने लेखन में भाषा की चिन्ता करने वाले मठपाल की कविताओं में कुमाउंनी की ठसक, लय-ताल, लोकोक्तियां, मुहावरे, उतार-चढ़ाव और बिम्बात्मकता का सुघड़ समन्वय उनको अन्य कवियों से विशिष्ट बना देता है ।गद्य साहित्य में भी उनका योगदान रहा लोकवार्ता( कंथ कथ्यूड़) दुदबोलि पत्रिका की भूमिका/ किताबों की भूमिका और शब्दार्थ बोधिनी में उनका गद्य देखने को मिलता है. गीत नाटिका/नृत्य नाटिका के रूप में उनकी चंद्रावती सत् परीक्षण, ‘महंकाली अवतरण’, ‘कद्रू वनिता’, ‘गोपीचंद भरथरी’ ये चार गीत नाटिकाएँ बहुत से मंचों पर खेली गयी हैं. उन्होंने सबसे पहले कुमाऊनी के 3 बड़े कवियों शेर सिंह बिष्ट (शेरदा अनपढ़) की ‘अनपढ़ी’ 1986 ई0 और गोपाल दत्त भट्ट जी की ‘गोमती गगास’ 1987 ई0 और हीरा सिंह राणा कि ‘हम पीर लुकाते रहे’ 1989 ई0 नाम से तीन किताबों को हिन्दी अनुवाद के सहित प्रकाशित किया। मठपाल जी ने स्वयं के चार काव्य संकलन प्रकाशित किये।वे अपने कवि कर्म के साथ-साथ दशकों से कुमाउनी बोली-भाषा, साहित्य के उन्नयन हेतु एक समर्पित व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते रहे । अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल जिला मुख्यालयों पर भाषा सम्मेलनों का सफल आयोजन कर मथुरा दत्त मठपाल ने ही इस उपेक्षित सी लोक भाषा को सम्मानित स्तर पर खड़ा करने की पहल की थी। नतीजतन इधर कुमाऊंनी में कई कविता संग्रह देखने को मिले हैं। किंतु कहना होगा कि कवि मठपाल के भाव की गहराइयों को उसके रचना कौशल की ऊंचाइयां तराश रही होती हैं, वे कविताएं निश्चित रूप से कुमाऊंनी की अग्रिम पंक्ति की कविताओं में भी अग्रिम हैं। इस मौके पर निखिलेश उपाध्याय, भुवन पपने, नवेंदु मठपाल, नंदिनी मठपाल, नंदराम आर्य, डा.डीएन जोशी, बालकृष्ण चंद, विनोद पांडे, पुष्पा मठपाल, हेमचंद्र मठपाल, मुरली कापड़ी, राजेश भट्ट, सोनू बिनवाल, मनोज पांडे, पुष्पा मठपाल, पुष्पेंदु मठपाल आदि मौजूद थे।