समाचार शगुन हल्द्वानी उत्तराखंड

शासकीय व्यवस्था में अनुशासन और पारदर्शिता निस्संदेह आवश्यक हैं, किंतु जब यह व्यवस्थाएं अपनी मूल भावना को छोड़कर केवल संदेह और नियंत्रण के औजार बन जाएं, तो यह चिंतन का विषय बन जाता है। उत्तराखंड राज्य प्राथमिक शिक्षक संगठन जनपद-नैनीताल के पूर्व जिला मंत्री डिकर सिंह पडियार ने बताया कि उत्तराखण्ड शासन द्वारा जारी ताजा आदेश, जिसमें सभी राजकीय कार्यालयों में बायोमेट्रिक प्रणाली से उपस्थिति दर्ज करने की बात कही गई है, एक ऐसी ही स्थिति को जन्म देता है। प्रश्न यह नहीं है कि बायोमेट्रिक प्रणाली तकनीकी रूप से उपयोगी है या नहीं; प्रश्न यह है कि क्या यह शिक्षक, कर्मचारी और प्रशासनिक अधिकारी—जो अपने कर्तव्यों का निर्वहन वर्षों से प्रतिबद्धता के साथ कर रहे हैं—उनके आत्मसम्मान पर एक अविश्वास की छाया नहीं है? राज्य के पर्वतीय और सुदूर क्षेत्रों में नेटवर्क, बिजली और तकनीकी साधनों की सीमाएँ सभी भलीभाँति जानते हैं। ऐसे में बायोमेट्रिक प्रणाली की बाध्यता केवल एक और प्रशासनिक बोझ बनकर रह जाती है। विद्यालयों और कार्यालयों में शिक्षकों व कर्मचारियों का मूल्य उनकी “अंगूठा छाप उपस्थिति” से नहीं, बल्कि उनके कर्तव्यनिष्ठ आचरण और कार्य के प्रभाव से आंका जाना चाहिए। शासनादेश में यह भी उल्लेख है कि कई कार्यालयों में मशीनें होने के बावजूद उनका प्रयोग नहीं हो रहा। परंतु क्या इसका समाधान सभी कर्मचारियों पर एक सख्त तकनीकी व्यवस्था थोपना है? या इसका समाधान संवाद, स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार लचीलापन, और प्रोत्साहन की नीति में है? यह आदेश शिक्षकों के उस योगदान की उपेक्षा करता है जो वे कक्षा से बाहर—विद्यालयों की व्यवस्था, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सामुदायिक सहयोग, और आपदा प्रबंधन जैसे कार्यों में देते हैं। शिक्षक एक प्रेरणा-पुरुष होता है, न कि एक मशीन पर अंगूठा लगाने वाला प्राणी। नियंत्रण से अधिक आवश्यक है विश्वास।तकनीक से अधिक आवश्यक है समझ और उपस्थिति से अधिक आवश्यक है प्रतिबद्धता। हमारा विनम्र आग्रह है कि शासन इस निर्णय पर पुनर्विचार करे और तकनीक का उपयोग सुविधा के लिए करे, नियंत्रण के लिए नहीं। क्योंकि यदि शिक्षक और कर्मचारी ही अपने कार्यस्थल पर अपमानित अनुभव करने लगें, तो कार्य की गुणवत्ता और आत्मीयता दोनों पर संकट आ जाएगा।