नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में पहाड़ी जीवन का सुख दुख ही नहीं संघर्ष भी दिखता है

समाचार शगुन हल्द्वानी उत्तराखंड 

पहाड़ी जीवन का सुख दुख, प्रकृति का हर रंग ही नहीं
पहाड़ी जीवन का संघर्ष भी नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में साफ झलकता है। व्यावसायिक कलाकार होने के बाबजूद उन्होंने जनसरोकारों से नाता जोड़े रखा उपरोक्त विचार उत्तराखंडी लोकभाषाओं के चिन्याण पछ‌्याण लिए
काम करने वाली संस्था दुदबोली की मासिक बैठक में उभर कर आई।पर्वतीय सभा लखनपुर में हुई बैठक को संबोधित करते हुए कुमाउनी कवि निखिलेश उपाध्याय ने कहा नरेन्द्र सिंह नेगी गढ़वाली गीत-संगीत के लब्धप्रतिष्ठित रचनाकार हैं. वे गायक हैं, गीतकार हैं, संगीतकार हैं और कवि भी हैं. पिछले पचास वर्षों से अधिक समय से उत्तराखंडी गीत संगीत में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. गोपाल सिंह बिष्ट ने कहा वे एक व्यावसायिक कलाकार हैं पर उनकी व्यावसायिकता उनके जनसरोकारों पर हावी नहीं है. पहाड़ में सुबह होने से लेकर शाम होने तक बारिश से लेकर बाघ के आतंक तक सब नेगी के गीतों में दर्ज है.

पहाड़ में सूर्योदय के दृश्य का वर्णन करता हुआ उनका गीत है :
चम्,चम् चम्,चम्,चम्,चमकी घाम कांठ्यों मां, हिंवाली कांठी चांदी की बणीगैनी,
(चम,चम,चम चमकी धूप पहाडियों पर, बर्फ से लकदक पहाडियां चांदी जैसी हो गयी)
उनकी कविताओं में बाघ के आतंक को भी देखा जा सकता है । वे निशानेबाज जसपाल राणा से भी लोगों की तरफ से बाघ पर निशाना लगाने का ही आग्रह करते हैं :
बन्दुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे,निसणु साधी दे
उत्तराखंड मा बाघ लग्युं,बाघ मारी दे।

नवीन तिवारी ने कहा नरेन्द्र सिंह नेगी सत्ता की लूट पर सीधी चोट करते हैं.अपने एक गीत में वो कहते हैं :
बिना पाणी का घूळी गैनी,यों मा कनि सार च,यूँ को क्वी दोस नी यों कि सरकार च।

दूदबोली संपादक मंडल सदस्य नवेंदु मठपाल ने कहा उत्तराखंड आंदोलन के दौर में तो आंदोलन के गीतों का एक पूरा कैसेट ही नेगी जी ने निकाला.1994 के प्रचंड जनांदोलन में उत्तराखंडियों को जागने का सन्देश देते हुए उन्होंने लिखा:
उठा जागा उत्तराखंडियों,सौं उठाणो बक्त ऐगे,
उत्तराखंड का मान सम्मान बचाणो बक्त ऐगे,
भोळ तेरा भला दिनों का खातिर जौं कु ल्वे सड़क्यँ मा बौगी,
ऊं शहीदों कू कर्ज त्वे पर अब चुकाणो बगत ऐगे
(उठो,जागो,उत्तराखंडियो शपथ लेने का वक्त आ गया है,
उत्तराखंड का मान सम्मान बचाने का वक्त आ गया है
कल तेरे उज्जवल भविष्य के लिए,जिनका लहू सड़कों पर बहा
उन शहीदों का कर्ज चुकाने का वक्त आ गया)
2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली में प्रदर्शन करने जा रहे आंदोलनकारियों पर बर्बर दमन ढाया गया.इस बर्बर और शर्मनाक दमन के खिलाफ नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने गीत में प्रतिरोध दर्ज किया :
तेरा जुल्म कू हिसाब चुकौला एक दिन,लाठी-गोली को जवाब द्यौला एक दिन,
वो दिन-बार औंण,विकास का रतब्योंण तक ,
अलख जगीं राली ये उत्तराखंड मा,लड़ै लगीं राली ये उत्तराखंड मा
(तेरे जुल्म का हिसाब चुकायेंगे एक दिन,लाठी-गोली का जवाब देंगे एक दिन
वो दिन-वो वक्त आने तक,विकास का उजाला होने तक
अलख जगी रहेगी इस उत्तराखंड में, लड़ाई जारी रहेगी इस उत्तराखंड में)
9 नवम्बर 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य बना, लेकिन ये जनता के सपनों का राज्य नहीं था. लूट और झूठ की राजनीति का उत्तराखंड था, ठेकेदार और माफियाओं का उत्तराखंड था.
नेगी जी के भीतर के गीतकार और गायक ने इस छलावे को जल्दी ही पहचान लिया. जहां राज्य बनने से पूर्व के गीतों में वे विकास के नाम पर विनाश करने वालों को खोजने और पहचानने को कहते हैं, वहीं राज्य बनने के बाद के गीतों में वे लूट की ताकतों और उनके शिखर पुरुषों की ना केवल शिनाख्त करते हैं बल्कि खुल कर उनपर ऊँगली उठाते हैं,उनका नाम लेते हैं.उनके कारनामों को गीतों के जरिये जनता के सामने लाते हैं.
प्रकृति का हर रंग नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में है.पीले फ्योंली के फूल हों या लाल बुरांस(बुरुंश), बर्फ से लकदक चोटियों से लेकर गहरी घाटियों तक का सुन्दर वर्णन नेगी के गीतों में है.प्रकृति की सुरम्यता के साथ ही पहाड़ के भोले-भाले लोगों और उनके पहाड़ जैसे ही कष्टों का अंदाजा भी नेगी के गीतों से होता है.पहाड़ की प्राकृतिक सुरम्यता,प्रेम और सौंदर्य का ये गायक,गीतकार मजबूती से ना केवल जनता के पक्ष के गीत रचता और गाता है बल्कि आन्दोलनों में हिस्सेदार भी बनता है
जैसा कि जनता के पक्ष में खड़ी कला और कलाकार एक बेहतर दुनिया के सपने के साथ हमेशा खड़े होते हैं,वैसा ही नरेन्द्र सिंह नेगी भी अपने गीत में कहते हैं:
द्वी दिनै की हौर छिन ई खैरी,मुठ बोटी कि रख
तेरी हिकमत आजमाणू बैरी,मुठ बोटी कि रख,
ईं घणा डाळौं बीच छिर्की आलो घाम ये रौला मा भी
सेक्की पाळै द्वी घडी हौर छिन,मुठ बोटी कि रखा
(दो दिनों का और है ये कष्ट,मुट्ठी ताने रख,
तेरी हिम्मत आजमा रहा है बैरी,मुट्ठी ताने रख,
इन घने पेड़ों के अँधेरे को चीर कर भी आएगा उजाला,
पाले की हेकड़ी दो वक्त की और है,मुट्ठी ताने रख)। कार्यक्रम के अंत में गढ़वाली हास्य कवि घनानंद “घन दा”के निधन पर शोकसभा की गई। इस मौके पर राजा राम विद्यार्थी, सीपी खाती, नंदराम आर्य, नवीन तिवारी, विशंभर दत्त पंत, रमेश बिष्ट, शंकर दत्त शर्मा, जितेंद्र बिष्ट मौजूद रहे।

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